Thursday, September 30, 2010

अयोध्या विवाद: 1528 से लेकर 2010 तक

अयोध्या में विवादित भूमि का मुद्दा शताब्दियों से एक भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है और इसे लेकर विभिन्न हिन्दू एवं मुस्लिम

संगठनों ने तमाम कानूनी वाद दायर कर रखे हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर इतिहास एवं घटनाक्रम इस प्रकार है :-

1528: मुगल बादशाह बाबर ने उस भूमि पर एक मस्जिद बनवाई, जिसके बारे हिन्दुओं का दावा है कि वह भगवान राम की जन्मभूमि है और वहां पहले एक मंदिर था।

1853: विवादित भूमि पर सांप्रदायिक हिंसा संबंधी घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज पहला प्रमाण।

1859: ब्रिटिश अधिकारियों ने एक बाड़ बनाकर पूजास्थलों को अलग अलग किया। अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों को दिया गया और बाहरी हिस्सा हिन्दुओं को।

1885: महंत रघुवीर दास ने एक याचिका दायर कर राम चबूतरे पर छतरी बनवाने की अनुमति मांगी, लेकिन एक साल बाद फैजाबाद की जिला अदालत ने अनुरोध खारिज कर दिया।

1949: मस्जिद के भीतर भगवान राम की प्रतिमाओं का प्राकट्य। मुस्लिमों का दावा कि हिन्दुओं ने प्रतिमाएं भीतर रखवाई। मुस्लिमों का विरोध। दोनों पक्षों ने दीवानी याचिकाएं दायर की। सरकार ने परिसर को विवादित क्षेत्र घोषित किया और द्वार बंद कर दिए।

18 जनवरी 1950: मालिकाना हक के बारे में पहला वाद गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया। उन्होंने मांग की कि जन्मभूमि में स्थापित प्रतिमाओं की पूजा का अधिकार दिया जाए। अदालत ने प्रतिमाओं को हटाने पर रोक लगाई और पूजा जारी रखने की अनुमति दी।

24 अपैल 1950: यूप राज्य ने लगाई रोक। रोक के खिलाफ अपील।

1950: रामचंद्र परमहंस ने एक अन्य वाद दायर किया, लेकिन बाद में वापस ले लिया।

1959: निर्मोही अखाड़ा भी विवाद में शामिल हो गया तथा तीसरा वाद दायर किया। उसने विवादित भूमि पर स्वामित्व का दावा करते हुए कहा कि अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर हटाया जाए। उसने खुद को उस स्थल का संरक्षक बताया जहां माना जाता है कि भगवान राम का जन्म हुआ था।

18 दिसंबर 1961: यूपी सुन्नी सेन्ट्रल बोर्ड आफ वक्फ भी विवाद में शामिल हुआ। उसने मस्जिद और आसपास की भूमि पर अपने स्वामित्व का दावा किया।

1986: जिला जज ने हरिशंकर दुबे की याचिका पर मस्जिद के फाटक खोलने और की अनुमति प्रदान की। मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।

1989: वीएचपी के उपाध्यक्ष देवकी नंदन अग्रवाल ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक ताजा याचिका दायर करते हुए मालिकाना हक और स्वामित्व भगवान राम के नाम पर घोषित करने का अनुरोध किया।

23 अक्तूबर 1989 : फैजाबाद में विचाराधीन सभी चारों वादों को इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच में स्थानांतरित किया गया।

1989 : वीएचपी ने विवादित मस्जिद के समीप की भूमि पर राममंदिर का शिलान्यास किया।

1990: वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने मस्जिद को आंशिक तौर पर क्षतिग्रस्त किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत के जरिए विवाद का हल निकालने का प्रयास किया।

6 दिसंबर 1992 : विवादित मस्जिद को वीएचपी, शिवसेना और बीजेपी के समर्थन में हिन्दू स्वयंसेवकों ने ढहाया। इसके चलते देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिनमें 2000 से अधिक लोगों की जान गई।

16 दिसंबर 1992: विवादित ढांचे को ढहाये जाने की जांच के लिए जस्टिस लिब्रहान आयोग का गठन। 6 माह के भीतर जांच खत्म करने को कहा गया।

जुलाई 1996 : इलाहाबाद हाई कोर्च ने सभी दीवानी वादों पर एकसाथ सुनवाई करवाने को कहा।

2002: हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से खुदाई कर यह पता लगाने को कहा कि क्या विवादित भूमि के नीचे कोई मंदिर था।

अपैल 2002: हाई कोर्च के 3 न्यायाधीशों ने सुनवाई शुरू की।

जनवरी 2003 : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अदालत के आदेश पर खुदाई शुरू की ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वहां भगवान राम का मंदिर था।

अगस्त 2003 : सर्वेक्षण में कहा गया कि मस्जिद के नीचे मंदिर होने के प्रमाण। मुस्लिमों ने निष्कर्षों से मतभेद जताया।

जुलाई 2005: संदिग्ध इस्लामी आतंकवादी ने विवादित स्थल पर हमला किया। सुरक्षा बलों ने 5 आतंकियों को मारा।

जून 2009 : लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच शुरू करने के 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस बीच आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।

26 जुलाई 2010: इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने वादों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा। फैसला सुनाने की तारीख 24 सितंबर तय की।

30 सितंबर 2010: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि पर फैसला देते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया है। राम चबूत

रा और गर्भ गृह दोनों निर्मोही अखाड़ा को दे दिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।

बीजेपी के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ वकील रविशंकर प्रसाद ने बताया कि तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन हि्स्सों में बांटा जाएगा। उसका एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है हिंदुओं को मंदिर के लिए) दिया जाएगा। दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा।

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच की जस्टिस डी. वी. शर्मा, जस्टिस एस. यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल की बेंच ने इस मामले में अपना फैसला कोर्ट नंबर 21 में दोपहर 3.30 बजे से सुनाना शुरू कर दिया। मीडियाकर्मियों को अदालत जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। बाद में डीसी ऑफिस में बनाए गए मीडिया सेंटर में मीडियाकर्मियों को तीनों जजों के फैसलों की सिनॉप्सिस दी गई।

लखनऊ के डीएम अनिल कुमार सागर ने कहा कि मामले से सीधे तौर पर जुड़े लोगों को ही कोर्ट नंबर 21 में प्रवेश करने की इजाजत थी। जिन्हें प्रवेश दिया गया उन्हें फैसला सुनाए जाने से पहले कक्ष से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी। डीआईजी राजीव कृष्ण ने कहा कि फैसले के बाद किसी तरह के विजय जुलूस या गम के प्रदर्शन के आयोजन पर पहले से ही पाबंदी लगी हुई है। अगर इस रोक के बावजूद ऐसी कोई कोशिश की गई तो उससे सख्ती से निपटा जाएगा।

अर्से पुराने मुद्दे का दोनों समुदायों के बीच बातचीत से कोई हल नहीं निकल सका। पूर्व प्रधानमंत्रियों- पी. वी. नरसिम्हा राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर ने भी इस मुद्दे के बातचीत से निपटारे की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

हालांकि, उस जमीन पर विवाद तो मध्ययुग से चला आ रहा है लेकिन इसने कानूनी शक्ल वर्ष 1950 में ली। देश में गणतंत्र लागू होने से एक हफ्ते पहले 18 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर रखी गईं मूर्तियों की पूजा का अधिकार देने की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया था।

तब से चली आ रही इस कानूनी लड़ाई में बाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर अनेक पक्षकार शामिल हुए। अदालत ने इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के सैकड़ों गवाहों का बयान लिया। अदालत में पेश हुए गवाहों में से 58 हिन्दू पक्ष के, जबकि 36 मुस्लिम पक्ष के हैं और उनके बयान 13 हजार पन्नों में दर्ज हुए।

हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए वर्ष 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ( एएसआई ) से विवादित स्थल के आसपास खुदाई करने के लिए कहा था। इसका मकसद यह पता लगाना था कि मस्जिद बनाए जाने से पहले उस जगह कोई मंदिर था या नहीं। हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुई खुदाई मार्च में शुरू होकर अगस्त तक चली।

इस विवाद की शुरुआत सदियों पहले सन् 1528 में मुगल शासक बाबर के उस स्थल पर एक मस्जिद बनवाने के साथ हुई थी। हिंदू समुदाय का दावा है कि वह स्थान भगवान राम का जन्मस्थल है और पूर्व में वहां मंदिर था। विवाद को सुलझाने के लिए तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने वर्ष 1859 में दोनों समुदायों के पूजा स्थलों के बीच बाड़ लगा दी थी। इमारत के अंदर के हिस्से को मुसलमानों और बाहरी भाग को हिन्दुओं के इस्तेमाल के लिए निर्धारित किया गया था। यह व्यवस्था वर्ष 1949 में मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्ति रखे जाने तक चलती रही।

उसके बाद प्रशासन ने उस परिसर को विवादित स्थल घोषित करके उसके दरवाजे पर ताला लगवा दिया था। उसके 37 साल बाद एक याचिका पर वर्ष 1986 में फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज ने वह ताला खुलवा दिया था

समय गुजरने के साथ इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। वर्ष 1990 में वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए एक रथयात्रा निकाली, मगर उन्हें तब बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया गया था। केंद्र में उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी। 31 अक्टूबर 1990 को बड़ी संख्या में राम मंदिर समर्थक आंदोलनकारी अयोध्या में आ जुटे और पहली बार इस मुद्दे को लेकर तनाव, संघर्ष और हिंसा की घटनाएं हुईं।

सिलसिला आगे बढ़ा और 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवा करने के लिए जुटी लाखों लोगों की उन्मादी भीड़ ने वीएचपी, शिव सेना और बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। प्रतिक्रिया में प्रदेश और देश के कई भागों में हिंसा हुई, जिसमें लगभग दो हजार लोगों की जान गई। उस समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में पी. वी. नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार थी।

हालांकि, इस बार अदालत का फैसला आने के समय वर्ष 1990 व 1992 की तरह कोई आंदोलन नहीं चल रहा था, बावजूद इसके सुरक्षा को लेकर सरकार की सख्त व्यवस्था के पीछे कहीं न कहीं उन मौकों पर पैदा हुई कठिन परिस्थितियों की याद से उपजी आशंका थी।

अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी पहला मुकदमा वर्ष 1950 में गोपाल सिंह विशारद की तरफ से दाखिल किया गया , जिसमें उन्होंने वहां रामलला की पूजा जारी रखने की अनुमति मांगी थी। दूसरा मुकदमा इसी साल 1950 में ही परमहंस रामचंद्र दास की तरफ से दाखिल किया गया , जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया। तीसरा मुकदमा 1959 में निर्मोही अखाडे़ की तरफ से दाखिल किया गया, जिसमें विवादित स्थल को निर्मोही अखाडे़ को सौंप देने की मांग की गई थी। चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड की तरफ से दाखिल हुआ और पांचवां मुकदमा भगवान श्रीरामलला विराजमान की तरफ से वर्ष 1989 में दाखिल किया गया। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता की अर्जी पर चारों मुकदमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में स्थानांतरित कर दिए गए थे।

Wednesday, September 29, 2010

Mandir to ban jaayega
Par Ram kahan se laaoge?
Uss masjid ki deewaron ko
Kya pak kabhi kar paaoge?
Jis chaukhat par log jale
Ram wahan na jaayenge
Jin galiyaron mein khoon gira
Maula kya reh paayenge?


The curtain should be down on the 30th. Yes, some characters wake up late, do some improvisations, and add a dramatic, last minute twist akin to our Hindi movies, which get mixed responses. But the Ayodhya saga seems to be moving towards a closure. Like most I am relieved too. However, we have a history of being fond of sequels. And it is this 'carry-forward' that worries

In 1949, idols of Ram, Sita and Laxman 'mysteriously' appeared in Babri Masjid; in 1950, Mahant Paramhans Ramchandra Das filed a litigation in the court. On December 6, 1992, Babri Masjid was demolished. The politics of 'mysterious appearance' had played its part. The deal was big. But my friend Sana and a seven-year-old me understood neither 'mysterious appearance' nor its big deal.

When the nation witnessed the Godhra carnage and the riots that followed, my city and its twin, Ayodhya were as peaceful and harmonious as usual. In March-April 2002, there was an influx of karsevaks into my city. The city was barricaded.

The point I am trying to bring home is that public history and the public memory of Ayodhya dispute branch out into a figment called personal history and the personal memories of Sana, our city and mine. And if the nation chooses to acknowledge, this figment has the power to make all the difference. Because the seven year old Sana did not know what 'Babri Masjid' is; because the 16-year old student's concern is her exam; because her city is irritated at being usurped, while she identifies little with the karsevaks and their temple. Her Ram resides in her home, her heart; just as Sana's Allah resides in hers. Because, when Sana is told: "Zarre-zarre mein usi ka noor hai/ Yaar mera har taraf bharpoor hai; was the same: "Ram to ghar-ghar mein hain/ Ram har aangan mein hain/ Mann se Raavan jo nikale/ Ram uske mann mein hain."

There would have been many Sanas and Niveditas all along - in 1949, in 1950, in 1992, and later. Our memory is of co-existing faith and love. Once the twin-cities of Ayodhya and Faizabad were proud of their inter-faith heritage, socio-cultural harmony and long syncretic tradition. I hate it when you suddenly remember the city and put it all over the newspapers as a cause of religious discord. Where do you disappear when we grapple with the problems of infrastructure? Why don't you follow us when we set examples of communal harmony? There is more to us than your memory chooses to retain. If only you could see them and share.

The city of my birth is being 'prepared' for the judgment. The rest of the 'sensitive' pockets in the country too are being put on alert. My mom calls me today; just the way she did on the 23rd, asking me to 'be careful and avoid going out' for a couple of days. I ask her to do the same. Isn't justice supposed to be liberating? Do you realize the anticipation of this verdict has terrorized all of us? What kind of justice is going to be meted out on the 30th? A justice that robs our freedom to move? A justice that puts our fundamental right to live under probable threat?

I am happy that the sanctity of the court has been upheld. But, honestly I don't care about the verdict. Neither does Sana. Nor do the twin-cities. Please, this time care to see and share.